पुत्र की प्रथम पुण्यतिथि एक दर्दनाक दास्तान आज हमारे इकलौते बेटे को इस दुनिया से गए एक साल हो गए। कहते हैं, ईश्वर की मर्जी के आगे इंसान बेबस होता है, और सब्र ही एकमात्र सहारा बनता है। लेकिन, एक पिता के दिल की पीड़ा और एक मां की आंखों से बहे आंसुओं के साथ एक सवाल अब भी कचोटता रहता है—जिस बेटे को हमने 22 साल तक पाल-पोसकर बड़ा किया, उसे हमसे छीनने वाले के खिलाफ कब होगी कानूनी कार्रवाई? यह कहते हुए चिराग सक्सेना के पिता, देवेंद्र सक्सेना की आंखें नम हो जाती हैं।
दुर्घटना और उसके पीछे की व्यथा
आज से ठीक एक साल पहले, 7 अक्टूबर 2023, हमारे 22 वर्षीय बेटे चिराग सक्सेना, जो एक नर्सिंग के छात्र थे, एक भयानक सड़क दुर्घटना में अपने सहपाठियों देवेंद्र और गजेंद्र के साथ घायल हो गए थे। पुष्कर घाटी पर अवैध रूप से बजरी से लदे एक डंपर ने इन मासूम बच्चों की जिंदगी छीन ली। चिराग और देवेंद्र ने उस दर्दनाक हादसे में अपनी जान गंवा दी, जबकि गजेंद्र आज भी कोमा में है। गजेंद्र ना बोल सकता है, ना चल सकता है, और उसे केवल नलियों के सहारे खाना दिया जा रहा है।
टूटे हुए परिवार और उनकी असहनीय पीड़ा
इस हादसे ने तीन परिवारों को उजाड़ दिया। एक पिता जिसने अपने इकलौते बेटे को खो दिया, और तीन माताएं जिन्होंने अपने जीवन के सबसे बड़े सहारे को खो दिया। चिराग सक्सेना अपने माता-पिता का इकलौता बेटा था। उनकी मां एक ग्रहणी हैं, और पिता सामाजिक कार्यों से जुड़े रहते हैं। देवेंद्र, जिनके पिता पुलिस में थे, की भी इस हादसे में मौत हो गई। देवेंद्र के पिता की मृत्यु के बाद, उसे सरकारी नौकरी मिलने वाली थी, लेकिन अब उसकी मां अकेली रह गई हैं। गजेंद्र की मां, जो एक स्कूल कर्मचारी थीं, अब अपने बेटे की देखभाल में लगी हैं, जिसका इलाज जारी है।
पुत्र की प्रथम पुण्यतिथि: एक दर्दनाक दास्तान समाज और प्रशासन की उदासीनता
इन परिवारों ने समाज और देश के प्रति अपने कर्तव्यों को हमेशा निभाया। चिराग, देवेंद्र, और गजेंद्र जैसे बच्चे नर्सिंग की पढ़ाई कर समाज की सेवा में जुटे थे। इन बच्चों ने कोविड-19 जैसी महामारी में भी अपना कर्तव्य निभाया। पर अफसोस, आज इन परिवारों की दुर्दशा पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। न सरकार, न प्रशासन, न कोई सामाजिक संगठन, न ही न्यायपालिका ने इनकी पीड़ा को समझा या इनके लिए आवाज उठाई।
अधूरी न्याय की आस
चिराग के पिता का सवाल अब भी गूंजता है: “हमने अपना इकलौता बेटा खो दिया, और जिसने यह हादसा किया, उसके खिलाफ अब तक कोई ठोस कानूनी कार्रवाई क्यों नहीं हुई?” यह सवाल सिर्फ उनके लिए नहीं है, बल्कि उन सभी के लिए है जो अपने बच्चों को खोने के बाद न्याय की उम्मीद में बैठे हैं।
यह घटना सिर्फ एक दुर्घटना नहीं, बल्कि समाज, शासन और न्याय व्यवस्था के प्रति एक गंभीर प्रश्न है। क्या हमारे बच्चों की जिंदगी इतनी सस्ती है कि उनके मरने या जीने का कोई मतलब नहीं रह गया? इन परिवारों की त्रासदी हमें इस सवाल पर सोचने के लिए मजबूर करती है कि क्या इंसान की जान की कीमत सिर्फ उसके परिवार के लिए ही होती है?
समाज और प्रशासन से सवाल
आज, जब इन तीनों परिवारों के जीवन में सिर्फ खालीपन और असहनीय दर्द बचा है, तो क्या हमारा कर्तव्य नहीं है कि हम इनके लिए आवाज उठाएं? क्या इन मासूम बच्चों के बलिदान को यूं ही भुला दिया जाएगा? क्या कोई समाधान या न्याय इन परिवारों को राहत दे पाएगा?
इस पुण्यतिथि पर, इन परिवारों की पीड़ा को महसूस करना और उनके लिए न्याय की मांग करना हमारा कर्तव्य है। हम समाज के रूप में, इन बिखरे परिवारों के साथ खड़े हो सकते हैं और उन्हें यह एहसास दिला सकते हैं कि वे अकेले नहीं हैं। उनके दर्द और उनके संघर्ष का समाधान तभी मिलेगा जब हम उनके साथ आवाज उठाएंगे।